Tuesday, March 27, 2012

रोज उतरता हूँ कुछ सीड़ियाँ

रोज उतरता हूँ कुछ सीड़ियाँ नीचे की तरफ, चड़ते सूरज का यों एहतराम करता हूँ मैं|

जब भी गुजरता हूँ तेरी ओर से खामोश, थोड़ा थोड़ा हर बार खुद से गुजरता हूँ मैं ।।

हर दिन यूँ ही गुजरता हैं हर शाम यूँ ही तन्हा, हर रात नयी सुबह के इंतज़ार में जगता हूँ मैं ।

कल की उम्मीद ही हैं जो कल हैं मेरा, वर्ना हर पल क्यों इतने तुफानो से लड़ता हूँ मैं ।।


दुश्मनी किसी से नहीं खुद से ही हैं अपनी, ऐसे ही नहीं बार बार तुझे देख के जला करता हूँ मैं ।

बहुत दौड़ लिया मैं वक़्त के पीछे पीछे, अब यूँ ही चुपचाप उसे गुजरने दिया करता हूँ मैं ।।

कई ख़वाब शायद और भी हो इस दिल में, पर दिल की जरा अब कम ही सुना करता हूँ मैं ।

वो दिन जो गए तो अब हम भी चले कही ओर "शफ़क", इस शहर से न उतना प्यार अब करता हूँ मैं ।।

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