Saturday, December 13, 2014

सही कहा "शफ़क़"...

वो लेने आया हैं फसल का कुछ हिस्सा
क्या करे पसीना बहा तो अपना , पर जमीं तो उसकी ही हैं॥

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वो देता रहा ताकीद बात बात में मुझे
के कुछ तो खुदा  से डर ।
और  नासमझ में सोचता रहा ,
मैं जब हूँ खुदा का तो डर  काहे  का ॥


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बस्ती हैं बाजार हैं रौनकें हैं
और जिंदगी का शोरोगुल भी ।
खुदा  दो चार इंसान बस भेज दे
तो दिल तेरी कायनात में लग ही जाए ॥

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मेरी ढलती हुई उम्र और पकते हुए  बालों का रौब देखिये
दुनिया पूछने लगी हैं मुझसे दुनियादारी के कुछ अटपटे से सवाल ॥

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पता तो था न आएगा कोई जनाज़े पे मेरे
फिर भी रखने को इज़्ज़त शहर की बरामदा खाली  करवा लिया था मैंने ॥
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सही कहा "शफ़क़" के बुराई ले के कोई नहीं मरता
गर मरता तो ये जहां  हर गुजरते वक़्त ओर  बुरा न होता ॥
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वो दरख़्त बूढ़ा  हो चला हैं ,कुछ तो उसका एहतराम कर
यों गाहे बेगाहे उस पे , कील से इश्तेहार न  टांगा  कर ॥
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सुना हैं घंटों चली हैं बहस हमारे एक जुमले पर
अजब हैं दुनिया ,हमने वो  कहा उसपे इतिना सोचा न था ॥

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वो पूछता हैं हमें अब भी नींद क्यों नहीं आती
क्या बताते , ये सोचकर नहीं आती के वो सोता होगा चैन से हमें भुला कर ॥
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इस हाल की वजह न पूछ मेरे दोस्त
वो मुझे ले डूबा या उसकी यादेँ , इसका फैसला अभी बाकी हैं ॥ 

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