Saturday, August 14, 2010

देखता हूँ रोज आईने में इक शख्श को.

देखता हूँ रोज आईने में इक शख्श को.

कहा से आया कौन हैं मुझे क्या पता ..

बना क्यों हैं मेरा हमसाया वो.
लगता हैं मुझ सा पर में तो ऐसा नहीं था..

जिंदगी की दौड़ में अपनी सी ही किसी होड़ में .
में अकेला था मगर इतना अकेला नहीं था..


क्या बनने चला था क्या बन गया हूँ में .
कुछ-कुछ ऐसा ही था पर सपना मेरा ऐसा नहीं था..

आती हैं याद क्यों तेरी हर बात वो अब मुझे.
बेबस हुआ हूँ में पहले भी मगर इतना में बेबस नहीं था..



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2 comments:

  1. अच्छी प्रस्तुती के लिये आपका आभार


    खुशखबरी

    हिन्दी ब्लाँग जगत के लिये ब्लाँग संकलक चिट्ठाप्रहरी को शुरु कर दिया गया है । आप अपने ब्लाँग को चिट्ठाप्रहरी मे जोङकर एक सच्चे प्रहरी बनेँ , कृपया यहाँ एक चटका लगाकर देखेँ>>

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  2. वाह! क्या बात है, बहुत सुन्दर !

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