Tuesday, December 25, 2012

सोचता हूँ

सोचता हूँ ये पिंजरे में बंद पंछी कैसे होंगे
फिर लगता हैं कुछ हम जैसे ही होंगे


रोज ही तो कहता था आँखों से हाल मेरे
सोचता हूँ कभी तो तुमने सुने ही होंगे

अभी अभी लौटा हूँ उस बस्ती से यार
शायद वहाँ कभी इंसान रहते ही होंगे

मानो या न मानो वो बला की हसीन हैं
फरिश्ते भी उसे मुड़ मुड़ के देखते ही होंगे

ठंड इतनी हैं की नब्ज़ जम ही जाये
फुटपाथ पे तो दो  चार मरे ही होंगे

आज गंगा नहाया हूँ बरसों बाद
कुछ बरस के पाप तो धुले ही होंगे

कुछ अच्छे काम  भी कर लूं शफ़क
आज कल तो जहन्नुम के रस्ते भीड़ भरे होंगे
 

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