Tuesday, January 3, 2012

पता नहीं मुझे ...

खुद से खुद का मसीहा बनने चला था मैं
अब खुद बन गया हूँ क्या पता नहीं मुझे

बारहा तोड़ता था बनता था कुछ ख्वाब को नए तरीके से
ख्वाब हकीक़त में हो गया क्या पता नहीं मुझे

रोका जब भी देर तलक जज्बातों को दिल में अपने
नुमायाँ होने पे उनके क्या क्या हुआ बर्बाद पता नहीं मुझे

शायद वो इक टक निगाहें आखिरी गुज़ारिश थी उसकी
न रोकने पे मेरे उसका क्या हुआ अंजाम पता नहीं मुझे

वक़्त फिर रहा था छुपता छुपाता कुछ रोज से मुझसे
उसको पता था क्या सब कुछ पता नहीं मुझे

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