Saturday, November 27, 2010

खुद को ढूँढ रहा हूँ मैं

खुद को ढूँढ रहा हूँ मैं,
                          हर मंजर मैं तन्हा-तन्हा |
कोई मुझे बताएं तो,
                        वो गया कहाँ|
ले मेरा वजुद तन्हा - तन्हा||

आयें गर कभी वो  मेरे सामने,
                            तो आरजू हैं मेरी की पुछु|
क्यों कैसे हो कैसे गुजरते हैं दिन तन्हा-तन्हा ||


वक़्त से वक़्त की शिकायत क्या हैं

वक़्त से वक़्त की शिकायत क्या हैं,
    कहीं टूटा सपना , कहीं दर्द बेवजह हैं||

वादें से वादाखिलाफ़ी क्या हैं,
     कहीं दोस्त छूटे , कहीं खून ही जुदां हैं||

जिंदगी हो मौत तो मौत क्या हैं,
  कहीं सकूँ रूह को, कही आखिरी तमन्ना हैं||

आज ही हैं सबकुछ तो कल क्या हैं,
  कहीं खुशियाँ तमाम, कहीं वीराना जहाँ हैं ||

आज के शहरों को न जाने क्या हो गया हैं

आज के शहरों को न जाने क्या हो गया हैं,
    हर चोराहें पे बिकता हैं यहाँ आदमी ||

कभी भी सच को खरीदना इतना आसाँ न था,
    दाम लगा के तो देखों बिकता हैं इन्साफ भी||

भूल जाओं के गाँधी कभी पैदा  हुआ था यहाँ,
       गाँधी के नाम का तो बस नोट ही चलता हैं यहाँ||

इक सी ही लगेगी तुमको तस्वीर हर जगह,
       पैसे से ही तो रंगी हैं हर शय यहाँ ||

में इस बैचेनी में हूँ ऐसे कब तक जीऊँगा यहाँ,
     क्या करें मरने पे भी पैसा लगता हैं यहाँ||

इक आरजू हैं जो बेजा सी हैं

इक आरजू हैं जो बेजा सी हैं,
       सीने में दफ़न बेजां सी हैं||

पकड़ लेता मैं बढकर तेरा हाथ उस रोज,
        कहीं बेसबब तमन्ना सी हैं ||