Friday, October 2, 2009

नाकामियां और में......

नाकामियां और में ,साथ-साथ चलते रहे।

कभीं में उसकी, कभी वो मेरी पर्छैयाँ बन॥

बहुत सी आशाएं थी, इस दिल में।

वो टूट गई हालातों के पत्थर से, एक शीशा बन॥

देखता हूँ ख़ुद को आज भी,आईने में एतेमेनान से।

न जाने इस पतझड़ में , कहा गई वो रोनक बहार बन॥

हर गली इस शहर की ,आज भी लगती है पहचानी मगर।

इनमें न जाने कहा गई मेरी पहचान , गुमनामी का इश्तेहार बन॥

सोचता हूँ आज भी ,इन अंधेरों को रोशन करने की.

पर हौसला पल में कहा जाता हैं, तपती जमी में पानी बन॥

पी गया हूँ सारा जहर, जो दुनिया से मिला हैं ।

पर क्यों मुझे देवता बनाने लगे हो, मर जाने दो एक इंसान बन॥

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