मैं ही नहीं अभिमन्यु,
जो घिरा हो इस व्यूह में|
मेरे जैसे न जाने कितने,
भटक रहे इस व्यूह में||
प्रारंभ भी और अंत भी,
न जाने छिपा हैं किस छोर में|
जहा भी देखता हूँ बस स्वार्थ ही स्वार्थ हैं,
मर रहा हूँ निस्वार्थ ही न जाने किस मोह में||
हर तरफ देखता हूँ में क्या,
अपने ही तीर साधे हैं|
जहर बूझे भले न हो,
पर खून के प्यासे तो हैं||
समय अनिश्चित सही,
मृत्यु मेरी निश्चित ही हैं|
अनिश्चित युद्ध में,
विजय किसी की निश्चित तो हैं||
सत्य और असत्य का प्रशन,
इस छण नहीं|
बचा न सका कोई प्रहार,
मृत्यु ही परिणाम हैं||
कालजयी बन न सका,
अकाल मुत्यु समक्ष हैं |
व्यर्थ हैं किसी को दोष देना,
ज्ञान हो अपूर्ण तो जन्मता अक्षम हैं||