ये रास्ते न जाने किधर को जाते हैं ,
कुछ लोग उधर से आते हैं , कुछ लोग इधर से जाते हैं ॥
इन रास्तों पर कोई मंजिल नजर नहीं आती ।
फिर भी क्यों इतने मुसाफिर रोज इन पर नजर आते हैं ॥
धूल चिपटी हैं बालों में , पाँव में न जाने कितने छाले हैं ।
ये कौन हैं न जाने कहा से आते हैं,क्या ढूँढते हैं क्या पाना चाहते हैं ॥
सुनता हूँ रोज शोर इनकी बातों का, पर कुछ समझ नहीं पाता ।
"सच" "ईमान" "बलिदान",शब्द ये दिन रात बुदबुदाते हैं ॥
शब्द सुने से लगते तो हैं , पर कुछ मतलब अब समझ नहीं आता।
न जाने अब ये शब्द इस दुनिया में , किस के किस काम आते हैं ॥